भारत और चीन के बदलते संबंध:
भारत और चीन, दो सभ्यताएँ जो हज़ारों वर्षों से अस्तित्व में हैं, सिर्फ़ भौगोलिक पड़ोसी नहीं, बल्कि इतिहास, संस्कृति और दर्शन के गहरे धागों से भी जुड़ी हुई हैं। प्राचीन रेशम मार्ग (सिल्क रूट) ने सिर्फ़ वस्तुओं का नहीं, बल्कि बौद्ध धर्म और ज्ञान का भी आदान-प्रदान किया। 20वीं सदी के मध्य में जब दोनों आधुनिक राष्ट्रों के रूप में उभरे, तो ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ का नारा एक नई मित्रता का प्रतीक बना। लेकिन, यह मित्रता जल्द ही कड़वे संघर्ष में बदल गई, और आज भी यह संबंध सहयोग, प्रतिस्पर्धा और संघर्ष की एक जटिल गाथा है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:’भाई-भाई’ से ‘टकराव’ तक
1947 में भारत की स्वतंत्रता और 1949 में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की स्थापना के बाद, भारत और चीन दोनों देशों ने एक-दूसरे के प्रति सकारात्मक रुख अपनाया। भारत, चीन की कम्युनिस्ट सरकार को मान्यता देने वाले शुरुआती गैर-साम्यवादी देशों में से एक था। पंचशील के सिद्धांत, जो 1954 में दोनों देशों के बीच हुए समझौते का आधार बने, शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की एक उम्मीद जगाते थे।
भारत और चीन के सिद्धांत थे:
- एक-दूसरे की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान।
- एक-दूसरे पर आक्रमण न करना।
- एक-दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना।
- समानता और पारस्परिक लाभ।
- शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व।
इन सिद्धांतों के बावजूद, 1959 में तिब्बत पर चीन के कब्जे और दलाई लामा को भारत में शरण देने के बाद दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ा। यह तनाव 1962 में एक बड़े युद्ध में बदल गया। इस युद्ध में भारत को भारी नुकसान हुआ, और इसने दशकों तक दोनों देशों के संबंधों में अविश्वास की गहरी खाई पैदा कर दी। यह एक ऐसा घाव था जो आज भी भारतीय मानस में मौजूद है।
1976 में राजनयिक संबंध बहाल हुए, लेकिन संबंधों में वास्तविक सुधार 1988 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी की चीन यात्रा के बाद शुरू हुआ। इस यात्रा ने सीमा विवाद को सुलझाने के लिए एक संयुक्त कार्य समूह (Joint Working Group) बनाने का मार्ग प्रशस्त किया। इसके बाद 1993, 1996 और 2005 में कई समझौतों पर हस्ताक्षर हुए, जिनका उद्देश्य वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर शांति और स्थिरता बनाए रखना था।
भारत और चीन आर्थिक संबंध एक जटिल जाल:
पिछले कुछ दशकों में, भारत और चीन के आर्थिक संबंध तेज़ी से बढ़े हैं। आज चीन भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार है, लेकिन यह संबंध एक बड़े व्यापार घाटे से ग्रस्त है, जो भारत के पक्ष में नहीं है। चीन से भारत में मुख्य रूप से इलेक्ट्रॉनिक सामान, मशीनरी, रसायन और फार्मास्यूटिकल उत्पाद आयात होते हैं, जबकि भारत से चीन को खनिज, कपास और कुछ कृषि उत्पाद निर्यात किए जाते हैं।
भारत और चीन के आर्थिक निर्भरता के कई पहलू हैं:
व्यापार घाटा: भारत का चीन के साथ व्यापार घाटा लगातार बढ़ रहा है, जो भारतीय उद्योगों और सरकार के लिए एक बड़ी चिंता का विषय है। भारत इस घाटे को कम करने के लिए निर्यात बढ़ाने और चीन पर अपनी निर्भरता कम करने का प्रयास कर रहा है।
निवेश और प्रौद्योगिकी: अलीबाबा, टेनसेंट और शाओमी जैसी चीनी कंपनियों ने भारतीय स्टार्टअप्स में बड़ा निवेश किया है। चीनी मोबाइल फोन और अन्य इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद भारतीय बाज़ार में अपनी मजबूत पकड़ बना चुके हैं। हालांकि, राष्ट्रीय सुरक्षा की चिंताओं के कारण भारत सरकार ने कई चीनी ऐप्स पर प्रतिबंध लगाया और कुछ चीनी निवेशों की भी गहन जाँच की है।
रणनीतिक निर्भरता: भारत अपनी नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं, विशेषकर सौर ऊर्जा के लिए, चीन पर काफी हद तक निर्भर है। इसके अलावा, भारत फार्मास्यूटिकल क्षेत्र में सक्रिय दवा सामग्री (APIs) के लिए भी चीन पर निर्भर है। यह निर्भरता भारत के लिए एक रणनीतिक कमज़ोरी है, जिसे वह “आत्मनिर्भर भारत” के माध्यम से दूर करने का प्रयास कर रहा है।
कुल मिलाकर, आर्थिक संबंध एक नाजुक संतुलन पर टिके हैं। एक ओर, व्यापार दोनों देशों को जोड़ता है, लेकिन दूसरी ओर, यह संबंध में एक असंतुलन और रणनीतिक भेद्यता भी पैदा करता है।
भारत और चीन के सीमा विवाद और सैन्य तनाव:
भारत और चीन के संबंधों में सबसे बड़ा और सबसे संवेदनशील मुद्दा सीमा विवाद है। 3,488 किलोमीटर लंबी वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पूरी तरह से चिह्नित नहीं है, और यही दोनों देशों के बीच लगातार तनाव का कारण है।
यह विवाद तीन मुख्य क्षेत्रों में फैला हुआ है:
- पश्चिमी क्षेत्र (लद्दाख): यह वह क्षेत्र है जहाँ चीन ने 1962 के युद्ध में अक्साई चिन पर कब्जा कर लिया था। इस क्षेत्र में गालवान घाटी और पैंगोंग त्सो झील जैसी जगहों पर अक्सर दोनों देशों की सेनाओं के बीच झड़पें होती हैं।
- मध्य क्षेत्र (उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश): यह क्षेत्र अपेक्षाकृत शांत है, लेकिन यहाँ भी कुछ असहमति के बिंदु मौजूद हैं।
- पूर्वी क्षेत्र (अरुणाचल प्रदेश): चीन पूरे अरुणाचल प्रदेश को “दक्षिणी तिब्बत” का हिस्सा मानता है और इस पर अपना दावा करता है।
2020 में गालवान घाटी में हुई हिंसक झड़प ने संबंधों को दशकों के सबसे निचले स्तर पर ला दिया। इस घटना के बाद से, दोनों देशों ने सीमा पर भारी संख्या में सैनिकों और हथियारों की तैनाती कर रखी है। हालांकि, कई सैन्य और राजनयिक वार्ताओं के माध्यम से कुछ क्षेत्रों में “डिसएंगेजमेंट” (सैनिकों को पीछे हटाना) हुआ है, लेकिन सीमा विवाद का कोई स्थायी समाधान अभी तक नहीं निकला है।
भू-रणनीतिक प्रतिस्पर्धा और क्षेत्रीय प्रभाव:
भारत और चीन न केवल द्विपक्षीय स्तर पर, बल्कि वैश्विक और क्षेत्रीय स्तर पर भी एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं।
चीन की ‘स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स’ रणनीति: चीन अपनी ‘स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स’ रणनीति के तहत भारत के पड़ोसी देशों में बंदरगाहों और बुनियादी ढाँचों का विकास कर रहा है, जैसे पाकिस्तान में ग्वादर, श्रीलंका में हंबनटोटा और बांग्लादेश में चटगांव। भारत इसे अपनी सुरक्षा के लिए एक चुनौती मानता है।
बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI): चीन की यह महत्वाकांक्षी परियोजना भारत की संप्रभुता का उल्लंघन करती है, क्योंकि इसका एक हिस्सा पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (PoK) से होकर गुजरता है। भारत ने इस परियोजना का कड़ा विरोध किया है।
हिंद-प्रशांत क्षेत्र: इस क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव का मुकाबला करने के लिए भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ मिलकर क्वाड (Quadrilateral Security Dialogue) जैसे समूहों में सक्रिय रूप से भाग ले रहा है।
पाकिस्तान के साथ चीन के संबंध: चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (CPEC) और दोनों देशों के बीच बढ़ती सैन्य और रणनीतिक साझेदारी भारत के लिए एक बड़ी चिंता है।
भविष्य की राह: संतुलन और सतर्कता
भारत और चीन के संबंध एक जटिल चौराहे पर खड़े हैं। एक ओर, दोनों देशों को जलवायु परिवर्तन, आतंकवाद और महामारी जैसी वैश्विक चुनौतियों का सामना करने के लिए सहयोग की आवश्यकता है। दूसरी ओर, सीमा विवाद और भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा उन्हें लगातार दूर कर रही है।
भविष्य की राह में भारत को एक सावधानीपूर्ण और संतुलित दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है:
- सीमा पर शांति बनाए रखना: यह दोनों देशों के संबंधों को सुधारने के लिए सबसे महत्वपूर्ण शर्त है। सीमा पर तनाव कम करने के लिए राजनयिक और सैन्य स्तर पर बातचीत जारी रहनी चाहिए।
- आर्थिक संबंधों में सुधार: भारत को चीन पर अपनी आर्थिक निर्भरता कम करनी चाहिए, जबकि व्यापार और निवेश को बढ़ावा देने के लिए नए रास्ते तलाशने चाहिए।
- बहुपक्षीय मंचों पर सहयोग: संयुक्त राष्ट्र, ब्रिक्स (BRICS) और शंघाई सहयोग संगठन (SCO) जैसे मंचों पर दोनों देश वैश्विक मुद्दों पर सहयोग कर सकते हैं।
- रणनीतिक स्वायत्तता: भारत को अपनी विदेश नीति में रणनीतिक स्वायत्तता बनाए रखनी चाहिए और किसी भी एक पक्ष के साथ पूरी तरह से गठबंधन करने से बचना चाहिए, ताकि वह अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा कर सके।
भारत और चीन, दोनों ही एशिया की दो बड़ी शक्तियाँ हैं, जिनका उदय 21वीं सदी के वैश्विक परिदृश्य को आकार देगा। यह आवश्यक है भारत और चीनदोनों देश अपने मतभेदों को प्रबंधित करें और एक-दूसरे के साथ सहयोग के लिए एक रास्ता खोजें। क्योंकि दोनों देशों के बीच शांति और स्थिरता न केवल उनके अपने विकास के लिए, बल्कि पूरे एशिया और वैश्विक शांति के लिए भी महत्वपूर्ण है।
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